माँ
| माँ के लिखना मेरे लिए हमेशा कठिन रहा है| परसों ही मित्र अवनीश सिंह चौहान का
फोन आया | कुछ लिखें | मैंने हामीं भर दी मगर क्या लिखूंगा यह सोचा नहीं | सोचना
भी क्या? मैंने हमेशा ज़िंदगी से लडती हुई माँ को देखा | एक जुझारूपन से |
मेरे
नानाजी गुजराती थे मगर वो वाराणसी में स्थित थे| माँ का जन्म भी वहीं हुआ–वाराणसी में | समय था अखंड हिन्दुस्तान का | फिर तो नानाजी अपने कामकाज से लाहोर,
करांची, बिहार के भागलपुर, मोतिहारी... न जाने कहाँ कहाँ रहे | मेरी माँ को भाई न
था | तीन बहने ही थीं | सबसे बड़ी सविता, मझली मेरी माँ – शशिकला और सबसे छोटी थी
शकुंतला | छोटी मौसी के जन्म के बाद ही मेरी नानीजी का देहांत हो गया था | जब देश
का बंटवारा हुआ तो नानाजी लाहोर में थे | इतिहास गवाह है कि बंटवारे के समय आज के
पाकिस्तान से हिंदुओं को किस तरह निकाला गया था | नानाजी भी तीनों बेटियों को लेकर
ट्रेन से निकल पड़े थे अपने हिंदुस्तान की ओर |
मुझे
याद आती है भीष्म साहनी की वो कहानी- ‘अमृतसर आ गया है’ |
जिसमें भी वोही कहानी है जो बंटवारे के समय ट्रेन से वापस लौटते हुए यात्रियों की
दर्दनाक दास्ताँ | पढते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे, क्यूंकि माँ ने हमें बचपन
में जो बातें बताई थी वोही घटनाएँ | नानाजी बेटियों को लेकर हिंदुस्तान लौट रहे थे
तब छोटी मौसी शकुंतला की उम्र होगी करीब चा-पाँच साल | उन्हें तरस थी| नानाजी ने
बड़ी मौसी सविता से कहा; “सामने वो प्याऊ है
वहाँ से पानी भर ले आ |” मगर उन्हें डर लग
रहा था | हिंदू-मुस्लिम की दुश्मनी का जो माहौल था, उसका डरना स्वाभाविक था |
नानाजी अपना थोडा सा कीमती सामन बचाकर लाए थे | उसकी हिफाज़त और दो छोटी बेटियों को
संभालकर बैठे थे | मौसी नहीं गई तो माँ ने कहा; “बाबू जी, मैं
शकुंतला को लेकर पानी पिलाकर आई, आप चिंता न करें |”
माँ
भी तो इतनी बड़ी कहाँ थी ! नानाजी भी ट्रेन के डिब्बे के दरवाजे पे खड़े थे| माँ
शकुंतला मौसी को लेकर प्याऊ तक पहुँची| उसी समय एक बड़ा सा झुलुस – मारो, कापो ...
कोई बच न पाएं – स्टेशन पर आतंक मचाने लगा | ट्रेन तुरंत शुरू कर दी गई| फिर भी
माँ ने भीड़ के बीच से शकुंतला मौसी को पानी तो पिलाया मगर ट्रेन में कैसे चढती?
नानाजी सविता मौसी का हाथ पकडकर ट्रेन के दरवाजे पे खड़े भी न रह पाएं | अन्य हिंदू
भी ट्रेन में चढाने लगे, जिन्हें जान बचानी थी | माँ शकुंतला मौसी का हाथ पकडकर
दौडने लगी.. मगर छोटी मौसी कितना दौड पाती ? ...... और माँ ने ट्रेन का डिब्बे से
लगे हेंडल को पकड़ लिया था और उधर .... शकुंतला मौसी का हाथ छूट गया.... ओह ! फिर
हमारी प्यारी सी शकुन्तला मौसी को हमने हमेशा तसवीर में ही देखी |
हिंदुस्तान
में आते ही नानाजी अपनी बहन के घर आएं अहमदाबाद में | जहाँ उसका ससुराल था |
अहमादाबाद में कर्फ्यू था | मुश्किल से घर पहुंचे मगर बहन के ससुराल में कितने दिन
रहते? वो लौट आएं हमारे सुरेंद्रनगर जिले में|
माँ
जन्म से ही हिन्दी भाषी थी | सबसे बड़ी कठिनाई थी भाषा की| माँ की शादि हुई | छोटा
से गाँव में – जहाँ उनके लिए काम था खेतों में जाना, मज़दूरी करना, चिखुरन करना, घर
में रहे पशुओं को दोहना, उसे चारा डालना, कूएँ याँ तालाब से पानी लाना वो भी सर पे
गगरी रखकर..| माँ ने यह सब देखा ही न था तो काम कैसे करती? उसपे गाँव की अनपढ़
महिलाओं की हसीं-मज़ाक को सहना| ऐसा लगता था कि माँ जीते जी नर्क में आ गई | माँ
का स्वभाव था, सहन करना, हिम्मत से हर हाल में अडिग रहना | वर्ना वाराणसी में तो
वो ‘बोर्न विद सिल्वर स्पून’ थी | माँ वो सारा काम सीख गई| हम तीन भाई और एक बहन
| माँ ने अपनी सास के साथ खेती को संभाला और सूत से पैसे लाकर पिताजी को पीटीसी की
पढाई करवाई | और फिर पिताजी नज़दीक के गाँव में शिक्षक बन गएं |
मुझे
याद है – तब भी माँ गोबर और मिट्टी से अपने घर की दीवारों पर लिपाई करती | वो बांस
की सीधी पर चढ जाती और हम भाई-बहन गोबर-मिट्टी के गोले बनाकर उन तक पहुंचाते |
क्या मेहनत थी और क्या माँ का स्नेह ! उनके आंसूओं से बना वो गोबर-मिट्टी का घर 2001 में विनाशक भूकंप में गिर गया था | जो हम तीनों
भाईयों ने मिलकर नया बनाया है, सिर्फ माँ-बाबूजी की स्मृति के लिए, अपने गाँव की
मिट्टी का ऋण अदा करने और हमारे बचपन के संस्मरण को संस्कार के रूप में हमारे
बच्चों में आरोपण करने के लिए !
गरीबी
और मज़दूरी के बीच हमारी मजबूरी भी पल रही थी | हमने कभी उतने पैसे नहीं देखे थे कि
हम माँ को कभी उसी वाराणसी की गलियों में ले जाएँ, जहाँ उसका बचपन बीता था | उस
गंगाघाट पे ले जाएँ जहाँ गंगा आरती के दर्शन के लिए वो तरसती थी | वो हमेशा कहती; “हमारे घर का पिछला
दरवाज़ा गंगाघाट पर ही था... |”
आज
हम तीनों भाईयों के पास क्या कुछ नहीं हैं? बहन अपने ससुराल में खुश हैं | हमारे
पास सबकुछ होते हुए भी कुछ अफसोस, दुःख, यातना भी हैं, जिसे हम कभी भूलेंगे नहीं |
क्यूंकि वो दर्द का पिटारा ही हमारे जीवन की नींव है | सबकुछ होते हुए भी हमारे
बाबू जी नहीं है और न हमारी माँ !
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